मानसिक सन्तुलन का अपव्यय जीवन के सबसे बड़े अपव्ययों में से एक अपव्यय है, क्रोध, चिन्ता, नास्तिकता, पवित्र, वस्तुओं का अनादर-ये सब मानसिक असन्तुलन के अंग हैं।
इन बातों के परिणाम पर विचार किया जाए तो साफ पता चलता है कि ये अनावश्यक हैं। होरेस फ्लेचर का कथन है, “क्या जन सामान्य के दैनिक जीवन में ऐसे उदाहरण हमें मिलते हैं कि जिनमें वे क्रोध और चिन्ता पर विजय प्राप्त कर पाते हों ?”
” खुद ही अपने प्रश्न का उत्तर देते हुए फ्लेचर कहता है, “हां, नास्तिक लोग स्वभावतः स्त्रियों के सामने कसमें नहीं खाते । दुष्ट लोग भी उनके सामने सज्जन बन जाते हैं, जिनका कि वे सामान छिपा लाते हैं,श्रद्धा और फेशन-दो बातों में यह शक्ति है कि ये मनुष्य की पाशविक वृत्तियों को वश में रखती हैं। यदि पाशविक वृत्तियों को इस तरह वश में किया जा सकता है, तो सभी परिस्थितियों में क्यों नहीं किया जा सकता?
उदाहरणतः संयम के बारे में जब हम किसी से बातचीत करें, तो उसे क्रोध नहीं आता, इसका कारण यह है कि वह दुर्बलता को प्रकट नहीं होने देना चाहता ।” रोलैंड हिल ने कहा है, “एक बार जब मैं आयरलैंड से लौट रहा था, तो मुझे जहाज के मेट और कप्तान के व्यवहार से बहुत दुःख हुआ। उनकी कसमें खाने और गाली बकने की बुरी आदत थी।एक बार उनमें बहुत गाली गलौज हुआ। पहले कप्तान ने मेट को गालियां और धमकियां दीं और कसमें खाई । मैंने दृढ़ आवाज में उन्हें कहा-““बस बस, चुप हो जाओ, अब मेरी बारी है । यह इन्साफ की बात्त है।”
कप्तान ने पूछा-“यह किस बात की बारी? कैसा इन्साफ ?” मैंने जवाब दिया-“गालियां बकने और कसमें खाने की । सज्जनों! यदि आप आज्ञा दो तो मैं अपनी बारी ले लूं।” वे दोनों चुपचाप मेरी तरफ देखते रहे और प्रतीक्षा करते रहे । जब उन दोनों का धैर्य समाप्त हो गया तो उन्होंने मुझसे कहा कि मैं अपनी बारी लूं। तब मैंने उनसे कहा – “’मैं कसम खाकर कहता हूं कि मैं गाली तभी बकूंगा, जब मेरी इच्छा होगी।यह बात सुनकर कप्तान हंस पड़ा और कहने लगा-“इसका मतलब है तुम अपनी बारी नहीं लेना चाहते |”
मैंने कहा-“’कप्तान! क्षमा करना, मैं तभी गाली बकनी और कसम खानी उचित समझूंगा जबकि मैं इसका कुछ फायदा समझूंगा । जब मैं जानता हूं इसका कुछ फायदा ही नहीं तो मैं ऐसा काम क्यों करूं?” वाणी का संयम सदा ही आसान होता है, पर साथ ही लाभदायक भी होता है। प्रसन्न-हृदयता और आशावाद से धन की बचत होती है, जबकि क॒ढ़ने और निराश होने से स्वास्थ्य तथा धन दोनों की हानि होती है,बल्कि कुढ़न और निराशा धन के प्रबल शत्रु हैं । प्रसन्न हृदयता और उन्हीं से हमें जीवन-संघर्ष के लिए सामर्थ्य प्राप्त होती है। कुढ़ना और निराशावाद से हमारी सामर्थ्य वृथा ही बिखर जाती है।
इनसे अनावश्यक सन्देह उत्पन्न होता है और काम करने या सफल होने का सम्पूर्ण उत्साह नष्ट हो जाता है। भय के ऊपर हम अपनी जितनी शक्ति नष्ट करते हैं,उतनी ही शक्ति यदि हम अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में लगाएं तो उसे प्राप्त करने में निश्वय ही सफल हो सकते हैं। परिश्रम, मितव्ययिता और बचत इनसे ही सब प्रकार के सदाचार की नींव रखी जाती है। “हमारी स्मरण-शक्ति हमारे सभी विगत दिवसों का लेखा-जोखा अपने भीतर संचित रखती है । उसकी लिखाई अदृश्य होती है, ठीक उसी तरह जैसे कोई नींबू के पानी से लिखें।
नींबू के पानी से लिखे लेख को ज्यों ही आंच दिखाई जाये त्यों ही उसके लेख स्पष्ट प्रकट हो जाते हैं। इसी तरह संकट आने पर हमारी स्मरण-शक्ति अपने भीतर संचित विगत दिवसों के लेखा-जोखा में से आवश्यक अनुभूतियों को लेकर संघर्ष करती है और हमें संकट से पार ले जाती है।इस प्रकार चिन्ता और भय के कारण हमें कितनी हानि पहुंचती है, इसका हम मात्र अनुमान ही लगा सकते हैं। | हमारे मन में एक दिन में जितने भाव आते हैं, यदि उन्हें रिकॉर्ड करने का हमारे पास कोई यन्त्र हो तो एक दिन में एक बड़ा ग्रन्थ तैयार हो सकता है
और इस तरह से एक व्यक्ति एक वर्ष में 365 पुस्तकें आसानी से लिख सकता है, किन्तु भावनाएं मनुष्य के मानस में इतनी द्रुतगति से उठती हैं कि मनुष्य के लिए मन की आन्तरिक भावनाओं का रिकॉर्ड करना नामुमकिन है। पश्चिम ने पूर्व की सभ्यता के विषय में अनेक पाठ पढ़ाये हैं। अब पश्चिम का यह कर्त्तव्य है कि वह कुछ पाठ पहले से पढ़े। उसे जापान से यह सीखना चाहिए कि क्रोध और चिन्ता से किस प्रकार से बचना चाहिए। जापान ने इस विषय पर इतनी अधिकारपूर्ण सफलता प्राप्त की है कि उसे इस विषय का पूर्ण पंडित कहा जा सकता है। मन का सन्तुलन वहां बालकों तक में इस सीमा तक पाया जाता हैकि हमें कहना पड़ता है-उस देश ने इसे बालकों तक के लिए शान्ति का विज्ञान बना डाला है। कहा जाता है कि पश्चिम की तरह चिन्ता में रोना न चाहिए।
जापान में एक व्यक्ति गया। वह वहां की दार्शनिकों जैसी प्रसन्न-हृदयता की प्रशंसा करने लगा । उसके एक जापानी दोस्त ने कहा-“इस प्रकार की प्रसन्न हृदयता आपको भी प्राप्त हो सकती है, परन्तु इसके लिए आपको सबसे पहले क्रोध तथा चिन्ता का त्याग करना पड़ेगा ।”सभी लोगों को यही गुण जापानियों से जरूर ही सीखना चाहिए। “वीर, सज्जन, कलापूर्ण, प्यार करने योग्य छोटा सा जापान !” होरेस फ्लेचर ने कहा है–“कुछ ही वर्ष पहले जो जापान एकान्त में एक पुष्प की भांति अपनी कलापूर्ण सभ्यता में विकसित हो रहा था, उसे अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं में अन्य देशों के साथ सम्मिलित होने के लिए बाध्य होना पड़ा है, परन्तु यह भी अच्छा ही हुआ है, क्योंकि वह शेष समस्त संसार को जीवन की कला का पाठ पढ़ाएगा।”
बीचर का कथन है-“एक जंगली, उच्छुड्खल दुःख की भावना ऐसी है, जिससे कभी किसी को कुछ लाभ नहीं होता, वह मनुष्य के मन को व्याप्त कर लेती है, मानसिक शक्तियों को निगल लेती है, उसका नाम है चिन्ता-और वह हमेशा हानिकारक होती है।” “जीवन में कुछ ऐसे क्षण हो सकते हैं, जब मनुष्य दुःख का दमन न कर सके और उससे पराभूत होने को वह विवश हो जाए और उससे वह अपने मन को हल्का कर ले।इस प्रकार का दुःख कुछ घण्टों के लिए या एक दिन के लिए हो तो इससे कोई विशेष हानि नहीं होती, परन्तु निरन्तर ही दुःख में डूबे रहना हा उस पर कभी भी काबू न पा सकना जीवन के लिए बहुत नुकसान दायक |