ऊंची सोच ऊंची उपलब्धि
व्यक्ति की सोच के अनुरूप ही उसका जीवन बनता है। मन के अपने कुछ नियम हैं जिन्हें हम देख नहीं सकते। सफलता, असफलता उनके परिणाम हैं। इन नियमों का पालन करके हम जो चाहें, बन सकते हैं, जो चाहें पा सकते हैं । इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि आशा इच्छा से अधिक बलवान है। “मनुष्य जैसा सोचता है, वैसा ही बन जाता है,” कहने से यह कहना कहीं अधिक सत्य एवं युक्तिसंगत होगा–“मनुष्य जैसी आशा करता है, वैसा ही बन जाता है।
मानव जीवन में सोचने एवं इच्छा करने की अपेक्षा आशा करने का महत्त्व कहीं ज्यादा है। विचार से विश्वास की शक्ति अधिक है। हम उसी की आशा करते हैं, जिसका हमें विश्वास होता है। वास्तव में विश्वास ही हमारा मार्ग-दर्शक है।
हम सभी सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान परमेश्वर की सनन््तान हैं। फिर हम बुद्धि, शक्ति एवं जीवन की अच्छी चीजों से वंचित क्यों रहें? हमें वे सारी चीजें तो विरासत के रूप में मिली हैं।
हमें अपनी विरासत का तकाजा करना चाहिए हम तो प्रसन्नता एवं सफलता के स्त्रोत से सम्बद्ध हैं, तब हम प्रसन्न एवं सफल , क्यों नहीं है। हमें इसके लिए प्रयत्न करना चाहिए सफल जीवन की व्याख्या को दो शब्दों में हम इस प्रकार समझ सकते हैं-“आनन्दमयी आशा।” कहने का अभिप्राय यह है कि हमें प्रसन्न मन से उत्तम चीजों की आशा करनी चाहिए तथा मुंह लटकाकर विपत्ति, रोग, निराशा एवं असफलता की बातें सोचना छोड़ देना चाहिए।
अगर हम सदेव उत्तम कक आशा करते हैं तो सुख समृद्धि एवं सफलता हमारे द्वार पर दस्तक हेगी। सुख्-समृद्धि एवं सफलता हमारी विरासत हैं न जाने फिर भी हम इतने लापरवाह क्यों है? क्यों हम इसका तकाजा नहीं कर पाते? हमारे आसपास बहुत से ऐसे लोग हैं, जिन्होंने इस विरासत का तकाजा किया है। फिर हम ही क्यों मूर्ख बने हुए हैं? हम आनन्दमयी आशा एवं ईमानदारी के परिश्रम से इतनी सुख समृद्धि एवं सफलता हासिल कर सकते हैं, जिसकी हमने कभी स्वपन में भी कल्पना न की होगी।
हम एक ऐसे धनवान पिता के विषय में सोचना पसन्द नहीं करेंगे, जो कि अपने कुछ बच्चों को धन सम्पत्ति सौंपता है तथा कुछ बच्चों को घर से खाली हाथ निकाल देता है, ताकि वे विषम परिस्थितियों में दुःखभरा जीवन गुजारें।
निस्सन्देह उसका यह व्यवहार अन्यायपूर्ण एवं अमानवीय कहलायेगा! इसका तात्पर्य यह हुआ कि हम ईश्वर के विषय में भी यही बात कह रहे हैं। जब दूसरे लोगों के पास सुख समृद्धि के सभी साधन विद्यमान हैं तो हम ही . उनसे वंचित क्यों रहें? लेकिन वास्तविकता यह है कि हम अपने नकारात्मक मानसिक रवैये के कारण उनका बहिष्कार कर रहे हैं।
यह बात बहुत कम लोगों को ही ज्ञात है कि निर्धनता मन से शुद्ध होती है। हमारी चेतना, हमारा मानसिक रवैया हमारे कर्म की भूमिका है। वास्तव में शारीरिक विपन्नता मानसिक विपन्नता का ही परिणाम है। जब तक हम मानसिक दरिद्रता को अपने अन्दर पाले रहेंगे, हमारा जीवन समृद्ध नहीं हो सकता। ‘ कुछ लोग ऐसे होते हैं जो कि पैसे की दृष्टि से सम्पन्न नहीं होते, लेकिन वे स्वभाव के धनी होते हैं। ऐसे लोग खाने, पहनने एवं दैनिक उपयोग की जो भी वस्तु खरीदेंगे, बढ़िया ही खरीदेंगें।
ऐसे व्यक्तियों को उत्तम चीजें मिलती भी रहती हैं। उनका यह मानसिक रवैया ही तो है तथा जाने अनजाने उन्हें यह विश्वास है कि वे जो चाहेंगे, उन्हें प्राप्त होता रहेगा। कहने का मकसद यही है कि अमीरी गरीबी हमारे मानसिक रवैये पर ही निर्भर करती है। अनेक व्यक्तियों का स्वभाव होता है कि उन्हें अपने अभावपूर्ण जीवन से कोई शिकायत नहीं होती। ऐसे लोग अभावों से मुक्ति पाने का कोई प्रयास ही नहीं करना चाहते। यही स्वभाव धीरे धीरे उनके शरीर का एक अंग बन जाता है, जिसे छोड़ पाना उनके लिए मुश्किल हो जाता है।
हमारा कर्त्तव्य है कि हम विपन्नता को अपना स्वभाव न बनायें तथा आवश्यक वस्तुओं के बिना जीवन गुजारने की आदत न डालें। ऐसा करने से विपन्नता हमारा सहज स्वभाव हो जायेगी, जिस प्रंकार सस्ती वस्तुएं खरीदना बहुत से लोगों का स्वभाव हो जाता है। ऐसे लोग रोजमर्रा की खाने, पहनने एवं प्रयोग की जो भी वस्तुएं खरीदते हैं, सस्ती ही खरीदते हैं। ऐसा करने से
उनके रहन सहन में ही नहीं, बल्कि वार्तालाप एवं चिन्तन में भी सस्तापन नजर आने लगता है।
प्रायः यह देखा गया है कि दो लड़के बाल्यवस्था से एक साथ ही रहते हैं, विद्यालय में वे एक साथ ही शिक्षा पाते हैं। बाद में वे बिना किसी पूंजी के व्यवसाय भी शुरू कर देते हैं। उनमें से कोई एक लड़का सदैव बना ठना रहता है तथा इसी के अनुरूप उसके घर पर भी सारी सुख सुविधाएं मौजूद हैं।
लें दूसरे का स्वभाव उसके बिल्कुल विपरीत होता है। आवश्यक चीजों के बिना अपना जीवन गुजारते रहना उसका स्वभाव बन चुका है। हालांकि वह एक व्यापारी हैं, लेकिन शहर के विभिन्न भाग में उसने दफ्तर ले रखा है, वह सस्ते ढंग से सस्ती जगह पर रहता हैं उसकी मानसिक स्थिति के अनुरूप ही उसके वातावरण में भी बेहद सस्तापन नजर आता है।
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इन दोनों के मानसिक रवैये ने ही उन्हें एक दूसरे से इतना भिन्न बना दिया है। इनमें से एक तो हमेशा अच्छे पड़ौस में निवास करता है, उसके घर में उत्तम श्रेणी का फर्नीचर है, उसके भोजन की मेज पर सदैव अच्छे खाने लगे होते हैं। इसका मात्र यही कारण है कि अच्छी चीजों की आशा करना उसका स्वभाव बन चुका है। उसका मानसिक रवैया इन्हें आकर्षित करता है। इसके विपरीत, दूसरा युवक, सदैव सस्ती वस्तुएं खरीदता है, निर्धनता एवं सस्ती चीजों के अतिरिक्त कोई आशा ही नहीं करता।
इसी कारण वह अपना जीवन दरिद्र वातावरण में सस्ते ढंग से गुजारता है। समृद्धि लाने वाले सभी मार्ग उसके मानसिक रवैये के कारण अवरुद्ध हो गए हैं। जिन्दगी के आधारभूत सत्य इन्द्रियों की पकड़ से सर्वथा बाहर हैं। इसीलिए हम कभी भी वास्तविकता को सुनते, देखते, चखते, सूंघते अथवा अनुभव नहीं करते हैं। आज तक किसी ने सत्य एवं सौन्दर्य को नहीं देखा। कहने का आशय यह है कि उनका वास्तविक पहलू हमारी दृष्टि से ओझल रहता है।
. कभी किसी ने अपने दोस्त की आत्मा यानी वास्तविकता को नहीं देखा। ठीक इसी प्रकार किसी पत्नी ने वास्तव में अपने पति को तथा पति ने पत्नी को नहीं देखा। एक प्रकार से हम कह सकते हैं कि अस्तित्व का सत्य दृश्य नहीं है यह आत्मा है और अदृश्य है, जैसे कि महान् शक्ति जिसे हम विद्युत कहते हैं।किसी ने भी परमेश्वर को नहीं देखा, क्योंकि परमेश्वर एक शाश्वत सिद्धान्त है, अपरिवर्तनीय सत्य है, विश्व चेतना है, अदृश्य एवं अगम्य है।
किसी भी व्यक्ति ने रसायन, गणित एवं गुरुत्वाकर्षण के नियम नहीं देखे। इन नियमों के हम केवल परिणाम ही देखते हैं। नियम तो अदृश्य ही होते हैं। कभी हमने विद्युत भी नहीं देखी लेकिन उससे हमारे घरों में रोशनी होती है, गाड़ियां और कारखाने चलते हैं।संसार में ऐसे लोग बहुत हैं, जिनका स्वभाव “आपातकाल” के लिए बचाकर रखना बन चुका है। ऐसे लोग अपना तमाम जीवन रोते-झींकते हीं गुजारते हैं। वे एक-एक पैसे के लिए जान छोड़ते हैं। एक-एक पैसे को बचाकर रखने का प्रयास करते हैं।
ऐसे लोग सदैव महंगाई का ही रोना रोते रहेंगे। उनके घर में कोई जाकर देखे, तो वहां उदासीनता बरसती हैं उनका हमेशा एक ही तकियाकलाम है-“क्या किया जाये, हमारी तो खरीदने की सामर्थ्य ही नहीं है।” प्रायः माता-पिता किफायत की बातें किया करते हैं। अपने बच्चों के लिए वे अच्छे जूते व अच्छे कपड़े नहीं खरीदते क्योंकि उन पर अधिक दाम खर्च होते हैं। अपने बच्चों को सिनेमा नहीं दिखाते, ताकि पैसा बचा सकें। ऐसे लोगों को सदैव सस्ती वस्तुओं की ही खोज रहती है।
इनके घर में जब एक भी वस्तु व बढ़िया एवं खूबसूरत नहीं, कोई कलाकृति नहीं, तो इनका जीवन-स्तर ऊंचा कैसे उठ सकता है? इनका चरित्र उदार एवं उदात्त कैसे बन सकता है? उनकी प्रत्येक वस्तु मानसिक दरिद्रता के कारण ही दरिद्र है।
इस पर भी विडम्बना यह है कि उन्हें. इसका अहसास तक भी नहीं। उन्हें इस बात का ज्ञान ही नहीं है कि. जीवन को हर प्रकार से सुन्दर एवं सम्पन्न बनाना ही सच्चा मानव धर्म होता है। ह हमारा कहने का आशय यह हरगिज नहीं है कि आप अपनी कम आय होने पर भी अंधाधुंध खर्च करना प्रारम्भ कर दें। हमारा कहने का आशय सिर्फ इतना है कि भले ही आपकी आय के साधन सीमित हों, फिर भी आप अपने जीवन के प्रति उदारता का रवैया अपनाइये। अपने मन में सम्पन्नता एवं समृद्धि का अनुभव कीजिए।
एक बात का सदैव ध्यान रखिये कि सवाल यह नहीं कि आपको क्या करना है तथा आप क्या बनना पसन्द करते हैं?
आपका जीवन उस मानसिक सांचे में ढल रहा है, जिसकी आप उम्मीद करते हैं। दृढ़ आशा ही आपकी कामनाओं एवं इच्छाओं की पूर्ति का मार्ग प्रशस्त करती है। कोई भी सिद्धान्त या नियम ऐसा नहीं है कि भय या सन्देह उस वस्तु को आकृष्ट करे, जिसकी आप अभिलाषा रखते हैं। आपके दिल में यदि भय नहीं है तो फिर सन्देह किस बात का है? यदि आपको किसी संकट अथवा दुर्घटना की आश नहीं, तो आप उससे इरेंगे भी नहीं।
अगर हम अपने जीवन में आगे बढ़ने की कला सीखना चाहते हैं, यदि हम चाहते हैं कि हमारे सभी सपने साकार हों, यदि हम चाहते हैं कि हमारा वहुमुखी विकास हो तथा हमारा व्यक्तिगत एवं सामाजिक कल्याण हो, तो हमें जीवन में आशावान बनना होगा। किसी वस्तु की केवल इच्छा करने से ही हमारे कर्त्तव्य की पूर्ति नहीं हो जाती, बल्कि हमें आशावान होकर उस लक्ष्य की प्राप्ति का भरसक प्रयास करना चाहिए। जब हम अपने जीवन में लक्ष्य प्राप्ति की आशा रखते हैं, तभी हम प्रगति के पथ पर अग्रसर हो सकते हैं तथा हम तभी अपने देश एवं समाज की निष्काम भाव से सेवा कर सकते हैं।
आशा हमेशा इच्छा की अपेक्षा बलवती ही होती है। इसलिए हमें किसी भी वस्तु की इच्छा को छोड़कर उसकी प्राप्ति की पूरी आशा रखनी चाहिए तथा दृढ़ संकल्प एवं पूरे आत्मविश्वास के साथ प्रयत्न करते रहना चाहिए